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गोलकनाथ केस (1967): भारतीय लोकतंत्र में न्यायपालिका की भूमिका

  गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य (1967): भारतीय संविधान में एक ऐतिहासिक मोड़ भारत के संवैधानिक विकास में गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य (1967) एक महत्वपूर्ण निर्णय था, जिसने संसद की संशोधन शक्ति को सीमित कर दिया और मौलिक अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित की। इस फैसले ने विधायिका और न्यायपालिका के बीच शक्ति संतुलन की पुनर्व्याख्या की और आगे चलकर संविधान में बदलाव के नियमों को स्पष्ट किया। मामले की पृष्ठभूमि 1950 और 1960 के दशक में, भारत सरकार ने भूमि सुधार कानूनों को लागू करने के लिए कई प्रयास किए, जिनका उद्देश्य जमींदारी प्रथा को समाप्त करना और गरीबों में भूमि का पुनर्वितरण करना था। हालांकि, संपत्तिधारकों ने इन कानूनों को अपनी संपत्ति के अधिकार के विरुद्ध बताया। संविधान में नौवीं अनुसूची को जोड़कर सरकार ने इन कानूनों को न्यायिक समीक्षा से बचाने का प्रयास किया, जिससे यह विवाद और गहरा गया। इसी संदर्भ में, पंजाब के गोलकनाथ परिवार ने अदालत में याचिका दायर कर दावा किया कि सरकार का यह कदम उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है । मामले के मुख्य तथ्य याचिकाकर्ता : हेनरी गोलकनाथ और उनका परिवार, जो प...