चंपकम दोरायराजन मामला: न्याय की लड़ाई और संविधान का संतुलन
एक संघर्ष की शुरुआत
1950 का दशक, जब भारत एक नवगठित गणराज्य के रूप में अपनी पहचान बना रहा था। संविधान लागू हो चुका था, लेकिन सामाजिक न्याय और मौलिक अधिकारों के बीच संतुलन की चुनौती सामने थी।
मद्रास (अब तमिलनाडु) की रहने वाली चंपकम दोरायराजन, जो एक ब्राह्मण महिला थीं, का सपना था कि वह मेडिकल की पढ़ाई करें और समाज में अपना योगदान दें। लेकिन जब उन्होंने सरकारी मेडिकल कॉलेज में प्रवेश के लिए आवेदन किया, तो उन्हें यह कहकर मना कर दिया गया कि उनकी जाति के लिए निर्धारित सीटें भर चुकी हैं। यह उनके लिए चौंकाने वाला था। राज्य सरकार ने सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने के लिए आरक्षण नीति लागू की थी, जिसमें कुछ जातियों को प्राथमिकता दी गई थी।
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एक संवैधानिक लड़ाई
चंपकम को लगा कि यह नीति उनके मौलिक अधिकारों का हनन कर रही है। उन्होंने इस भेदभाव के खिलाफ मद्रास उच्च न्यायालय में मुकदमा दायर किया। मामला जल्द ही सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचा। सवाल यह था—क्या सरकार की यह आरक्षण नीति संविधान के अनुच्छेद 15(1) और 29(2) का उल्लंघन कर रही है?
अनुच्छेद 15(1) स्पष्ट रूप से कहता है कि राज्य किसी भी नागरिक के साथ धर्म, जाति, लिंग, जन्म स्थान या इनमें से किसी भी आधार पर भेदभाव नहीं कर सकता। वहीं, अनुच्छेद 29(2) कहता है कि राज्य द्वारा वित्तपोषित शिक्षण संस्थानों में किसी भी नागरिक को प्रवेश से वंचित नहीं किया जा सकता।
सर्वोच्च न्यायालय का ऐतिहासिक फैसला
सर्वोच्च न्यायालय ने चंपकम के पक्ष में निर्णय दिया। अदालत ने कहा कि राज्य सरकार की आरक्षण नीति अनुच्छेद 15(1) और 29(2) का उल्लंघन कर रही है और यह असंवैधानिक है।
लेकिन यहाँ सवाल उठा—क्या सामाजिक न्याय और मौलिक अधिकार एक साथ नहीं चल सकते?
संविधान (पहला संशोधन), 1951: एक नया मोड़
इस फैसले के बाद, सरकार ने सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों के उत्थान के लिए संविधान में पहला संशोधन (1951) किया और अनुच्छेद 15(4) जोड़ा। इस संशोधन के तहत राज्य को पिछड़े वर्गों के लिए विशेष प्रावधान करने की शक्ति मिल गई।
यह संशोधन दर्शाता है कि संविधान को स्थिर नहीं, बल्कि लचीला होना चाहिए ताकि समय के साथ सामाजिक आवश्यकताओं को समायोजित किया जा सके।
मौलिक अधिकार बनाम नीति निर्देशक तत्व: संतुलन की तलाश
चंपकम दोरायराजन मामले ने यह स्पष्ट किया कि मौलिक अधिकार (FR) नीति निर्देशक तत्वों (DPSP) से ऊपर हैं। लेकिन आगे चलकर, केशवानंद भारती मामला (1973) और मिनर्वा मिल्स मामला (1980) ने यह सिद्ध किया कि दोनों के बीच संतुलन आवश्यक है।
निष्कर्ष: न्याय की जीत
चंपकम दोरायराजन का यह संघर्ष एक व्यक्ति की लड़ाई नहीं थी, बल्कि एक ऐसा आंदोलन था जिसने भारत के संविधान को मजबूत किया। यह मामला हमें यह सिखाता है कि संविधान स्थिरता और प्रगतिशीलता के बीच संतुलन बनाए रखने के लिए बना है।
आज भी यह निर्णय संवैधानिक व्याख्या और नीतिगत निर्माण का एक प्रमुख उदाहरण बना हुआ है, जो हमें यह याद दिलाता है कि हर नागरिक का अधिकार सर्वोपरि है, लेकिन समाज के हर वर्ग को न्याय देना भी उतना ही महत्वपूर्ण है।

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