⚖️ न्यायपालिका बनाम कार्यपालिका: हालिया टकराव और उपराष्ट्रपति की टिप्पणी पर गहन विश्लेषण
🔍 प्रस्तावना
भारत के लोकतंत्र की मूल आत्मा है – संविधान द्वारा निर्धारित शक्तियों का पृथक्करण। न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका – तीनों स्तंभों की सीमाएं स्पष्ट हैं, फिर भी समय-समय पर इनके बीच टकराव की स्थितियाँ उत्पन्न होती रही हैं।
हाल ही में भारत के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने न्यायपालिका की भूमिका पर गंभीर सवाल उठाते हुए कहा कि "न्यायपालिका राष्ट्रपति को आदेश नहीं दे सकती"। यह बयान भारतीय संविधान की कार्यपालिका-न्यायपालिका संतुलन पर एक नई बहस को जन्म देता है।
🏛️ विवाद का मूल कारण: राष्ट्रपति को सुप्रीम कोर्ट के निर्देश
पृष्ठभूमि में था एक संवैधानिक विवाद – तमिलनाडु विधानसभा द्वारा पारित 10 विधेयकों को राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति के पास विचार के लिए भेजा गया था, लेकिन उन पर निर्णय लंबित था।
इस मुद्दे पर सुनवाई करते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति को समयबद्ध निर्णय लेने का निर्देश दिया, ताकि विधायी प्रक्रिया बाधित न हो। कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 142 का प्रयोग करते हुए "पूर्ण न्याय" की बात कही।
🗣️ उपराष्ट्रपति का बयान: संविधानिक मर्यादा या न्यायपालिका की अति?
उपराष्ट्रपति धनखड़ ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया दी:
"न्यायपालिका का काम संविधान की व्याख्या करना है, न कि कार्यपालिका को निर्देश देना। यदि न्यायपालिका राष्ट्रपति को आदेश देती है, तो यह संविधान के बुनियादी ढांचे के विरुद्ध है।"
उन्होंने यहां तक कहा कि अनुच्छेद 142 का प्रयोग "संवैधानिक परमाणु हथियार" के समान है, जिसका प्रयोग अत्यंत सावधानी से किया जाना चाहिए।
📚 संवैधानिक प्रावधान: क्या सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रपति को निर्देश दे सकता है?
संविधान के अनुच्छेद 74 के अनुसार, राष्ट्रपति कार्यपालिका प्रमुख जरूर हैं, लेकिन वे मंत्रिपरिषद की सलाह से ही कार्य करते हैं। इसलिए सुप्रीम कोर्ट का निर्देश वस्तुतः सरकार को निर्देश देने के समान ही था।
अनुच्छेद 142 क्या कहता है?
"सुप्रीम कोर्ट ऐसा कोई भी आदेश पारित कर सकता है, जो किसी मामले में पूर्ण न्याय प्रदान करने के लिए आवश्यक हो।"
इस प्रावधान की व्याख्या लचीली है, लेकिन यह सीमित भी होनी चाहिए — विशेषकर जब यह कार्यपालिका की संवैधानिक भूमिका में हस्तक्षेप कर सकती हो।
⚖️ विशेषज्ञों की प्रतिक्रिया: मतभेद और विचार
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वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने कहा कि न्यायपालिका के निर्देश को राष्ट्रपति का अपमान कहना अनुचित है, क्योंकि राष्ट्रपति कार्यपालिका की सलाह से कार्य करते हैं।
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पूर्व न्यायाधीश मदन लोकुर ने इसे न्यायपालिका के "संतुलित हस्तक्षेप" की श्रेणी में रखा।
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वहीं कुछ संवैधानिक विद्वानों ने उपराष्ट्रपति की चिंता को भी वैध बताया कि जज-मेड लॉ (judge-made law) का अत्यधिक विस्तार लोकतांत्रिक संतुलन को प्रभावित कर सकता है।
📈 इस प्रकरण का व्यापक असर क्या हो सकता है?
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संवैधानिक संस्थाओं के बीच विश्वास में दरार:
सार्वजनिक मंचों से होने वाली ऐसी टिप्पणियाँ न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच संवादहीनता को और बढ़ा सकती हैं। -
संविधान की व्याख्या पर बहस:
अनुच्छेद 142 की सीमाओं को पुनः परिभाषित करने की आवश्यकता महसूस की जा सकती है। -
लोकतांत्रिक संतुलन पर खतरा या सुधार का अवसर:
यदि इस बहस से सकारात्मक विमर्श उपजे, तो यह भारत की शासन-प्रणाली के लिए संविधानिक सुधार की दिशा में एक बड़ा कदम बन सकता है।
🧭 निष्कर्ष: शक्ति का संतुलन या सत्ता का संघर्ष?
भारत में लोकतंत्र की मजबूती इस बात पर निर्भर करती है कि तीनों संवैधानिक स्तंभ – विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका – परस्पर सम्मान और सीमाओं के साथ कार्य करें। हालिया टकराव सिर्फ एक संवैधानिक बहस नहीं, बल्कि भारत के भविष्य के सत्तासंतुलन की दिशा तय कर सकता है।
इसलिए आवश्यकता है कि इस विवाद को भावनात्मक या राजनीतिक चश्मे से नहीं, बल्कि संवैधानिक विवेक के दृष्टिकोण से देखा जाए।


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