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3 साल की वकालत’ की अनिवार्यता

3 साल की वकालत’ की अनिवार्यता और न्यायिक सेवा की तैयारी करने वालों पर इसका प्रभाव

प्रस्तावना

भारत में न्यायिक सेवाओं की तैयारी करने वाले हजारों छात्र हर वर्ष न्यायपालिका की परीक्षा (Judicial Services Exam) की तैयारी करते हैं, ताकि वे जज (Judge) बन सकें। लेकिन हाल के वर्षों में एक बहस तेज़ हो गई है – क्या न्यायाधीश बनने के लिए कम से कम तीन साल की वकालत (Practice) अनिवार्य होनी चाहिए? कुछ राज्यों ने इसे लागू किया है, कुछ विचार कर रहे हैं, और सुप्रीम कोर्ट तक ने समय-समय पर इस पर टिप्पणी की है। इस लेख में हम इसी विषय की गहराई से चर्चा करेंगे – इसका उद्देश्य, प्रभाव और चुनौतियाँ।

पृष्ठभूमि: तीन साल की वकालत की मांग क्यों?

भारतीय न्यायपालिका में कई वर्षों से यह चिंतन चल रहा है कि नए नियुक्त न्यायाधीशों में व्यवहारिक अनुभव की कमी होती है। जब छात्र सीधे कॉलेज से निकलकर जज बनते हैं, तो उन्हें:

  • कोर्ट की वास्तविक प्रक्रिया की जानकारी नहीं होती

  • वकीलों और वादियों से व्यवहार का अनुभव नहीं होता

  • प्रैक्टिकल केस हेंडलिंग और कोर्ट एथिक्स की समझ कम होती है

इसलिए कई विशेषज्ञों और न्यायमूर्तियों ने सुझाव दिया कि जज बनने से पहले कम से कम 3 वर्ष तक वकालत करना अनिवार्य किया जाए, ताकि वे सिस्टम को बेहतर समझ सकें।


मौजूदा स्थिति

राज्य / संस्था स्थिति
सुप्रीम कोर्ट 2022 में सुझाव – 3 साल की वकालत की बात पर विचार किया जाए
हरियाणा, झारखंड आदि कुछ राज्यों में 2-3 वर्ष की वकालत अनिवार्य की जा चुकी है
अन्य राज्य सीधे स्नातक के बाद ज्यूडिशरी परीक्षा संभव

इसके अलावा UPSC (लोक सेवा आयोग) में भी भारतीय विधि सेवा के लिए वकालत का अनुभव वरीयता के रूप में देखा जाता है।


न्यायिक सेवा की तैयारी करने वालों पर प्रभाव

1. पॉजिटिव इम्पैक्ट (सकारात्मक प्रभाव)

(क) व्यवहारिक ज्ञान में वृद्धि

तीन साल की वकालत से छात्रों को अदालत के कामकाज की गहरी समझ मिलती है। इससे वे ज्यादा व्यावसायिक और निपुण जज बनते हैं।

(ख) गलतियां कम होती हैं

व्यवहारिक अनुभव के चलते वे निर्णय लेने में सतर्क रहते हैं और प्रक्रिया संबंधी त्रुटियों से बचते हैं।

(ग) सामाजिक संवेदनशीलता बढ़ती है

असली मुवक्किलों से मिलने और उनके मुद्दों को समझने से जज बनने वाले अभ्यर्थी अधिक संवेदनशील हो जाते हैं।


2. नेगेटिव इम्पैक्ट (नकारात्मक प्रभाव)

(क) गरीब और ग्रामीण छात्रों के लिए बाधा

जो छात्र सीधे स्नातक के बाद परीक्षा देना चाहते हैं, उनके लिए यह एक अतिरिक्त समय और आर्थिक बोझ बन सकता है।

(ख) प्रतियोगिता में देरी

तीन साल वकालत करने के बाद ही आवेदन की पात्रता होने से छात्रों की आयु और करियर ग्रोथ पर प्रभाव पड़ सकता है।

(ग) कोचिंग उद्योग पर असर

प्रत्यक्ष परीक्षा देने वाले छात्रों की संख्या घटने से ज्यूडिशियल कोचिंग सेंटरों पर भी असर पड़ेगा।


छात्र वर्ग के अनुसार प्रभाव

वर्ग प्रभाव की प्रकृति
महिला अभ्यर्थी विवाह, पारिवारिक जिम्मेदारी के चलते लंबे करियर की योजना में अड़चन
ग्रामीण/आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग वकालत के शुरुआती वर्षों में आमदनी कम होती है, जिससे आर्थिक समस्या आती है
मध्यवर्गीय छात्र उन्हें जज बनने में देरी से मानसिक दबाव और वित्तीय अस्थिरता हो सकती है

क्या यह बदलाव आवश्यक है?

सवाल उठता है — क्या 3 साल की वकालत वास्तव में आवश्यक है?

हां, अगर इसे एक सहयोगी प्रक्रिया के रूप में देखा जाए, तो यह न्यायपालिका को और अधिक व्यावसायिक और प्रभावी बना सकता है। लेकिन यदि इसे बाध्यता के रूप में लागू किया गया, बिना उचित समर्थन और अवसर दिए, तो यह समाज के एक बड़े हिस्से को न्यायिक सेवाओं से दूर कर सकता है।


संभावित समाधान

  • स्टाइपेंड वकालत के दौरान: सरकार प्रशिक्षु वकीलों को वकालत के 3 साल तक मानदेय या स्टाइपेंड दे सकती है।

  • वैकल्पिक रास्ते: सीधे परीक्षा के साथ-साथ अनुभव आधारित भर्ती दोनों रास्ते बनाए जाएं।

  • ऑनलाइन वकालत प्रशिक्षण: न्यायिक परीक्षार्थियों को कोर्ट प्रोसीजर का डिजिटल माध्यम से प्रशिक्षण दिया जाए।

  • कम से कम 1-2 साल की इंटर्नशिप: 3 साल की जगह, 1-2 साल की अनिवार्य इंटर्नशिप भी विकल्प हो सकता है।


निष्कर्ष

'3 साल की वकालत' की अनिवार्यता न्यायिक सेवाओं को बेहतर, व्यावसायिक और अधिक जिम्मेदार बना सकती है, लेकिन यह आवश्यक है कि इससे कोई वर्ग वंचित न रह जाए। इसे लागू करने से पहले सरकार और न्यायपालिका को यह सुनिश्चित करना होगा कि आर्थिक, सामाजिक और वर्गीय संतुलन बना रहे।

जज बनना केवल परीक्षा पास करना नहीं, बल्कि इंसाफ की गहराई को समझना होता है — और अगर वकालत का अनुभव उस समझ को मजबूत करता है, तो यह स्वागतयोग्य कदम है, बशर्ते सभी के लिए सुलभ हो।


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