न्यायसंगत प्रक्रिया बनाम विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया: भारतीय संदर्भ में विस्तृत विश्लेषण
🔹 प्रस्तावना:
भारत का संविधान नागरिकों को कई मौलिक अधिकार देता है। इन अधिकारों की रक्षा के लिए न्यायिक व्यवस्था का मजबूत होना आवश्यक है। इस व्यवस्था में दो सिद्धांत अत्यंत महत्वपूर्ण माने जाते हैं— "Due Process of Law" (न्यायसंगत प्रक्रिया) और "Procedure Established by Law" (विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया)।
यह दोनों अवधारणाएं पहली नजर में समान लगती हैं, लेकिन इनके बीच एक मौलिक अंतर है। इस लेख में हम इन दोनों सिद्धांतों की व्याख्या करेंगे और समझेंगे कि भारतीय न्यायपालिका ने इनकी व्याख्या कैसे की है।
🔹 1. विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया (Procedure Established by Law) क्या है?
अर्थ:
इसका तात्पर्य है कि यदि कोई कानून संसद द्वारा विधिवत पारित किया गया है और उसमें किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता या जीवन को सीमित करने का प्रावधान है, तो सरकार उस कानून के अनुसार कार्य कर सकती है।
विशेषताएँ:
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केवल यह देखा जाता है कि कोई प्रक्रिया कानून के अनुसार है या नहीं।
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इस सिद्धांत में यह नहीं देखा जाता कि वह कानून न्यायसंगत है या नहीं।
उदाहरण:
अगर संसद एक कानून बनाती है कि किसी व्यक्ति को किसी विशेष परिस्थिति में बिना सुनवाई के गिरफ्तार किया जा सकता है, तो यह ‘विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया’ है। चाहे वह कानून कितना भी कठोर क्यों न हो।
🔹 2. न्यायसंगत प्रक्रिया (Due Process of Law) क्या है?
अर्थ:
यह सिद्धांत कहता है कि कोई भी कानून केवल इसलिए वैध नहीं है कि वह संसद द्वारा पारित हुआ है। उसे न्यायसंगत, तर्कसंगत, निष्पक्ष, और अविवेकी (arbitrary) नहीं होना चाहिए।
विशेषताएँ:
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केवल प्रक्रिया ही नहीं, बल्कि कानून की न्यायप्रियता की भी जांच होती है।
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नागरिक के मौलिक अधिकारों की रक्षा का उच्च स्तर प्रदान करता है।
प्रभाव:
यह सिद्धांत सरकार को मनमाने तरीके से व्यक्ति के जीवन या स्वतंत्रता को छीनने से रोकता है।
🔹 भारतीय संविधान और इन दोनों सिद्धांतों का स्थान:
भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के अनुसार:
"किसी व्यक्ति को उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से तभी वंचित किया जा सकता है, जब वह विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार हो।"
यह स्पष्ट रूप से ‘Procedure Established by Law’ का समर्थन करता है, न कि ‘Due Process’ का।
हालांकि, भारतीय न्यायपालिका ने समय के साथ अनुच्छेद 21 की व्याख्या को विस्तारित किया है और Due Process के तत्वों को शामिल कर लिया है।
🔹 ऐतिहासिक संदर्भ और प्रमुख केस कानून:
1️⃣ ए.के. गोपालन बनाम राज्य (1950)
इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 21 में सिर्फ "विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया" का पालन पर्याप्त है। यानी यदि कोई कानून विधिवत पारित हुआ है, तो उसे लागू किया जा सकता है, भले ही वह तर्कसंगत न हो।
न्यायपालिका ने Due Process को संविधान का हिस्सा मानने से इनकार कर दिया।
2️⃣ मेनेक गांधी बनाम भारत संघ (1978)
यह ऐतिहासिक निर्णय था जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 21 की व्याख्या को पूरी तरह से बदल दिया।
तथ्य: मेनेक गांधी का पासपोर्ट सरकार ने जब्त कर लिया था बिना उन्हें उचित सुनवाई दिए।
निर्णय:
सुप्रीम कोर्ट ने कहा:
“अनुच्छेद 21 के अंतर्गत ‘विधि’ का अर्थ केवल कानून नहीं, बल्कि न्यायसंगत और निष्पक्ष कानून होना चाहिए।”
📌 इस फैसले ने ‘Due Process of Law’ को व्यावहारिक रूप से भारतीय कानून व्यवस्था में शामिल कर दिया।
🔹 इसके बाद के प्रभाव:
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अब भारतीय न्यायपालिका प्रत्येक ऐसे कानून की वैधता की जांच करती है जो जीवन या स्वतंत्रता को प्रभावित करता है।
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मनमाना कानून अब सिर्फ ‘कानूनी’ होने के कारण वैध नहीं माना जाता।
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संविधान की भावना, मौलिक अधिकारों की रक्षा और सामाजिक न्याय की अवधारणाएं केंद्र में आ गई हैं।
🔹 वर्तमान दृष्टिकोण:
आज भारत में एक संतुलित दृष्टिकोण अपनाया गया है, जिसमें:
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संसद द्वारा पारित कानून जरूरी है (Procedure Established by Law),
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परंतु वह कानून तर्कसंगत, न्यायसंगत और मनमुक्त (arbitrary) नहीं होना चाहिए (Due Process elements)।
🔹 निष्कर्ष:
भारतीय संविधान में भले ही शब्दश: ‘Due Process’ का उल्लेख नहीं है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने समय के साथ इसके सिद्धांतों को लागू कर दिया है।
मेनेक गांधी केस के बाद, अनुच्छेद 21 केवल कानून की प्रक्रिया तक सीमित नहीं रहा, बल्कि यह सुनिश्चित करता है कि व्यक्ति को न्यायसंगत प्रक्रिया मिले।
✅ इस प्रकार, भारत में अब “विधि द्वारा स्थापित न्यायसंगत प्रक्रिया” की अवधारणा लागू हो चुकी है – जो नागरिकों के अधिकारों की रक्षा का एक शक्तिशाली माध्यम है।
📚 सुझावित पठन:
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केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) – मौलिक अधिकार और संविधान का मूल ढांचा संदीप कुमार बनाम राज्य (2021) – गिरफ्तारी में प्रक्रिया की न्यायसंगतता

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