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भारत में ज़मानत का कानून: कोर्ट कैसे तय करती है ज़मानत देना?

भारत में ज़मानत का कानून: अदालत किन बातों को ध्यान में रखती है?


🔷 परिचय:

भारतीय संविधान और आपराधिक प्रक्रिया संहिता (CrPC) का उद्देश्य केवल अपराधियों को सजा देना नहीं, बल्कि हर व्यक्ति को न्यायसंगत अवसर देना है।
इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए "ज़मानत" की अवधारणा विकसित हुई है — जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि आरोपी को न्याय मिलने तक उसकी स्वतंत्रता अनावश्यक रूप से बाधित न हो।

परंतु क्या ज़मानत हर किसी को आसानी से मिल जाती है? नहीं। इसके पीछे एक पूरा न्यायिक सोच है जिसे "बेल ज्यूरिसप्रूडेंस" कहा जाता है।


🔷 ज़मानत की परिभाषा और कानूनी आधार:

ज़मानत का तात्पर्य होता है –

"किसी व्यक्ति को यह आश्वासन देकर अस्थायी रिहाई देना कि वह न्यायिक प्रक्रिया में उपस्थित रहेगा और कानून का उल्लंघन नहीं करेगा।"

भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की निम्नलिखित धाराएं ज़मानत से संबंधित हैं:

  • धारा 436: साधारण (जमानती) अपराधों में अनिवार्य ज़मानत।

  • धारा 437: गंभीर (गैर-जमानती) मामलों में मजिस्ट्रेट द्वारा ज़मानत।

  • धारा 438: अग्रिम ज़मानत (पूर्व-गिरफ्तारी)।

  • धारा 439: उच्च न्यायालय/सेशन कोर्ट द्वारा विशेष मामलों में ज़मानत।


🔷 अदालतें ज़मानत देने से पहले किन पहलुओं पर ध्यान देती हैं?

✅ 1. अपराध का प्रकार और उसकी गंभीरता:

  • हत्या, बलात्कार, आतंकवाद जैसे गंभीर अपराधों में अदालतों का दृष्टिकोण अधिक सतर्क होता है।

  • छोटे-मोटे विवादों या वैवाहिक विवादों में ज़मानत आसानी से दी जा सकती है।

✅ 2. प्रथम दृष्टया मामला (Prima Facie Evidence):

  • अदालत यह देखती है कि क्या पुलिस या वादी के पास आरोपी के खिलाफ प्रारंभिक स्तर पर पर्याप्त तथ्य हैं।

✅ 3. आरोपी का पिछला रिकॉर्ड:

  • यदि वह पहले से अपराधी रहा है या भगोड़ा रहा है, तो ज़मानत मिलने की संभावना कम हो जाती है।

✅ 4. सबूतों से छेड़छाड़ या गवाहों को प्रभावित करने की संभावना:

  • अदालत यह सुनिश्चित करती है कि ज़मानत मिलने के बाद आरोपी जांच या गवाहों को प्रभावित न करे।

✅ 5. ट्रायल में विलंब:

  • यदि न्यायिक प्रक्रिया लंबी चलने की संभावना हो और आरोपी जेल में हो, तो उसकी ज़मानत पर अदालत सहानुभूतिपूर्वक विचार कर सकती है।

✅ 6. पीड़ित पक्ष की सुरक्षा:

  • कुछ मामलों में अदालतें यह भी देखती हैं कि ज़मानत मिलने से पीड़ित की सुरक्षा को कोई खतरा तो नहीं होगा।


🔷 न्यायालयों के दिशा-निर्देश:

📌 "बेल रूल है, जेल अपवाद"

सुप्रीम कोर्ट ने कई फैसलों में यह स्पष्ट किया है कि जब तक बहुत आवश्यक न हो, तब तक किसी व्यक्ति को हिरासत में रखना उचित नहीं है।
(उदाहरण: State of Rajasthan v. Balchand, 1977)

📌 समाज व आरोपी के बीच संतुलन ज़रूरी

(Sanjay Chandra v. CBI, 2012) — अदालत ने कहा कि समाज के हितों की रक्षा करते हुए आरोपी को ज़मानत देना संभव है, यदि वह न्यायिक प्रक्रिया का सम्मान करता हो।


🔷 अग्रिम ज़मानत: एक रक्षात्मक उपाय

यदि किसी व्यक्ति को गिरफ़्तारी की आशंका हो, तो वह अदालत से पूर्व-गिरफ्तारी ज़मानत (धारा 438 CrPC) की मांग कर सकता है।
यह विशेषकर उन मामलों में प्रासंगिक है जहाँ FIR दर्ज होने की संभावना है, पर गिरफ्तारी अनिवार्य नहीं है।


🔷 विशेष कानूनों में ज़मानत की जटिलता:

कुछ कानून जैसे —

  • UAPA (Unlawful Activities Prevention Act)

  • NDPS (Narcotic Drugs and Psychotropic Substances Act)

  • POCSO (Protection of Children from Sexual Offences)
    इनमें ज़मानत पाना अधिक कठिन होता है, क्योंकि यहां अभियोजन पक्ष को पहले यह साबित करना होता है कि आरोपी दोषी है।


🔷 प्रभावशाली उदाहरण:

  • अरनब गोस्वामी केस (2020) — सुप्रीम कोर्ट ने रेखांकित किया कि न्याय में देरी व्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन है, और ज़मानत एक संवैधानिक सुरक्षा है।

  • असामाजिक तत्वों की ज़मानत रोकना भी ज़रूरी — यदि आरोपी से समाज को खतरा है, तो ज़मानत को रोका जा सकता है। (UAPA में दृष्टांत)


🔷 निष्कर्ष:

ज़मानत केवल कानूनी प्रक्रिया नहीं, बल्कि व्यक्ति की स्वतंत्रता और मानवाधिकारों का भी हिस्सा है।
हालांकि हर मामला अलग होता है, लेकिन न्यायपालिका का प्रयास होता है कि ज़मानत का उपयोग न्याय और निष्पक्षता के बीच संतुलन बनाकर किया जाए।

आरोपी को न तो अनावश्यक जेल में रखा जाए, और न ही उसे ज़मानत देकर कानून की प्रक्रिया से भागने का मौका मिले।

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